Sunday, October 3, 2010

गुलज़ार साहब की यह ग़ज़ल आज सुबह से ही गुनगुना रहा है मन...सौ टका बात है सौ टका सचाई संग..आपसे साझा करने को यहां प्रस्तुत है। एक फिल्म में भी यह ग़ज़ल, भूपेंद्र ने गाया है इसे...

आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं
जिंदगी इतनी मुख्तसर भी नहीं

ज़ख़्म दिखते नहीं अभी लेकिन
ठंडे होगे तो दर्द निकलेगा
तैश उतरेगा वक्त का जब भी
चेहरा अंदर से ज़र्द निकलेगा

आज बिछड़े हैं…

कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
कौन ढूंढे जवाब दर्दों के
लोग तो बस सवाल करते हैं

आज बिछड़े हैं ..

कल जो आयेगा, जाने क्या होगा
बीत जाये जो कल नहीं आते
वक्त की शाख तोड़ने वालों
टूटी शाखों पे फल नहीं आते

आज बिछड़े हैं ..

कच्ची मिट्टी है, दिल भी इंसा भी
देखने ही में सख्त लगता है
आंसू पोंछे तो आंसुओं के निशां
खुश्क़ होने मे वक़्त लगता है

आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं
जिंदगी इतनी मुख्तसर भी नहीं

Monday, September 27, 2010

प्रेम- दो तरह से

कोई जरूरी तो नहीं कि तू भी सच्चा ही होता, तू भी अच्छा ही हो


तुझ पर कोई दबाव क्यों हो कि तू अच्छा ही हो, तू सच्चा ही हो
तुझमें अगर उफान उठता है
मेरा सर कुचलने का
तो क्या बुरा है
प्रेम मैने किया है गर
तो तेरा प्रेम के नाम पर खिलवाड़ करना
क्यों बुरा है
तू वैसा है
जैसा ईश्वर ने बनाया तुझे
मैं वैसा हूं
जैसा ईश्वर ने बनाया मुझे
तेरे रक्त में अगर ऊर्जा मेरी पीड़ा से है
तो तेरा ऊर्जावान होने पर
तांडव क्या बुरा है
तू जैसा है
तू वैसा है
क्योंकि ईश्वर ने तुझे ऐसा ही गढ़ा है

Saturday, September 25, 2010

आसमानी इंतजार

उंगलियों में तेज जलन है...आज हरी मिर्च को मिक्सी में नहीं पीसा, कद्दूकस कर दिया है...

आलू मीठे हैं और सब्जी को तीता करना था न...इसलिए खूब हरी मिर्च कद्दूकस की...

लेकिन मीठे आलू की तीती तरी से क्या पूरी सब्जी वैसी ही बन पाएगी जैसी कि उसे होना चाहिए...

ऐसा लगता है कि कुछ किस्मतें इंतजार की धूप में लिखी जाती हैं और इसलिए इबारत चाहें कुछ भी कहे पर इंतजार की धूप से किस्मतवाले का पीछा छूटना नहीं लिखा होता...

Saturday, March 27, 2010

जब खुशियां संभलती नहीं


भी कभी कोई कोई
खुशी संभाले नहीं संभलती। कभी कभी कोई खुशी साइज में इतनी छोटी होती है कि हथेली पर पड़ी दिखाई नहीं देती।


ओस की बूंद सी, सफेद मोती सी यूं ही हथेली पर डगमगाती रहती है कि हथेली वाला हाथ डर से कांपता रहता है...कि अब गिरी कि तब गिरी...यह हाथ भी कांप गया है। डर लग रहा है कि कहीं लाखों दुआओं के बाद मिली यह खुशी हथेली पर रखी रखी सूख न जाए। कहीं ऐसा न हो कि वह फिसल कर कहीं गिर जाए। ऐसा न हो कि वह यूं ही किसी टोने के लपेटे में आकर गायब हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा भाग्य करवट ले ले...कहीं ऐसा न हो कि मेरा भाग्य करवट ले ले...

और, हाथ यह सोच सोच कर कांपता ही जा रहा है। क्या करूं कुछ समझ नहीं आता। हंसू कि न हंसू। खुश होने से क्या मेरी ही नजर लग जाएगी? आरुषि खुश होना चाहती थी और इस खुशी को स्थाई बना लेना चाहती थी। संबंधों की जटिलता ऐसी होती है कि पीछा नहीं छोड़ती। पीछा छोड़ दे, तो कितने ही संबंध खत्म हो जाएं। दरअसल, कई संबंधों की जटिलता ही है जो संबंधों को बनाए रखती है। आरुषि के लिए अंगद वही था जो उसके हाथ के लिए उसके कंधे हैं। पैर के लिए चप्पल हैं। आंख के लिए रोशनी हैं। अंधेरे के लिए उजाले। घास के लिए ओस। बाग के लिए फूल...

हाथ में गुलाब पकड़ा कर अंगद दिल्ली गया है। रिश्तेदार रहते हैं। अंगद को गए दो दिन से ऊपर हो गए। आंटी ने बताया था कि दो दिन में आ जाएगा। आज पांचवा दिन है। पांच दिन क्यों...क्यों ...क्यों...।

उसने कहा था वहां उसकी गर्लफ्रेंड रहती है जिससे अब उसका मन कट चुका है। पर..मन तो दोबारा जुड़ भी सकता है। उसने कहा था वह दिल्ली में ही सेटल होना चाहता है। वह सेटल होने के लिए ही प्लान कर रहा होगा तो...। वह वहीं रम गया तो...। वह फूल पीला था जो उसने दिया...। लाल भी नहीं था। कहीं यह ओस की बूंद


प्लासिटक का छिलका तो नहीं..जिसे मैं ओस समझने की गलती कर रही हूं...। यही सब सोच कर कर आरुषि की हालत खऱाब थी। यही सोच सोच कर उसके हाथ कांपे जा रहे थे। हथेली का आत्मविश्वास खत्म हो रहा था। ओस की बूंद सूखती सी लग रही थी। कंधे से हाथ टूटते से लग रहे थे। आंखों से रोशनी जुदा होती सी लग रही थी।

...क्या हुआ होगा। क्या होगा...। बताइए...क्या हो सकता है...

Saturday, March 13, 2010

प्रेम की निशानियां


पनों की किताबों
पर कोई भी लफ्ज ऐसा नहीं होता जिसे एडिट न किया जा सके। सपने कहानी संग्रह का नाम लगते हैं जिसके पात्रों को ठीक वैसे ही होना चाहिए, जैसे वे बुने गए होते हैं।

पर, जीवन हमें इरेज़र नहीं देता। एक पल पूर्व का अतीत ऐसे दर्ज हो जाता है मानो पत्थर पर खुदा इतिहास। न जबान से कही बात को दाएं  बाएं कर सकना संभव, न भोगे गए अहसासों को।
ले दे कर कितना कुछ इकट्ठा हो जाता है, जो न दिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। न लिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। ठीक उलट ही, दे दिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। ले लिया जाता तो बेहतर होता (शायद)।
न सिखाया होता पांव पर पांव धर कर आलथी पालथी कैसे मारी जाती है, तो वह उपासना के दौरान इतना याद न आता। छोटी गोरी पतली सी टांगे मोड़ने में कितनी दिक्कत आती थी उसे..उफ्फ..और उसकी कंडीशनिंग यह कहते हुए करना कि परमात्मा पापा के सामने आलथी पालथी में बैठते हैं नहीं तो उन्हें बुरा लगता है..कैसा संपूर्णता का अहसास होता! लगता था कि मेरी उपासना तो हो ली....
यह पहली शिक्षा थी जो कुछ जबरदस्ती सिखाई थी, 'ग' की इच्छा के खिलाफ। अभागापन तभी से शुरू होता है जब अपना ही मांस अपने आप को बाकी मांस से काट कर अलग कर लेता है। एक इरेज़र चाहिए जो प्रेम की निशानियों समेत खून के धब्बों को मिटो दे। रिश्तों को सावधानियों से बचाए रखते हुए।

Monday, March 8, 2010

धरती और आसमान बीच

हंसने गुनगुनाने
रोने गुदगुदाने
मुस्कुराने शर्म से
और जबरन मुस्कुराने,

शाम और रात के
रात और ख्वाब के
बात और चुप के
प्रेम और प्यास के,


गर्भ और पात में
स्नेह और बेस्वाद में
फिजूल और काम में
कल में और आज में,

एकांत और साथ- बीच
धोखे और विश्वास- बीच
डर और प्रताप- बीच
लय और सिद्धांत- बीच


तुम हो परिणति
तुम से ही सृष्टि
तुम ही हो कालजयी
जीवन की आकृति।

Friday, March 5, 2010

डूबिए..उतराइए

ये सुनिए। सुन कर डूब न जाएं तो कहिए।...और फिर तैर कर बाहर आने का रास्ता मिले, तो प्रतिश्रुति को भी बताएं...

यहां क्लिक करें

Tuesday, March 2, 2010

असल में तुम..तुम हो

क्या है ऐसा जो डुबो देता है बार बार
क्या है ऐसा जो दम घोंट देता है बार बार

डूबने और दम को घोंटने की प्रक्रिया का अंत
मर कर होता है

क्या है तुममे ऐसा जो मरता ही नहीं मर कर भी बार बार

मैंने फिर देखा तुम्हारी आंखों में
तुम मेरी कुछ भी नहीं
तुम्हारी जिंदगी मुझे एक अजीब परिघटना लगती है
अपने आस पास घटती सी
मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में
सुपरहिट होता जा रहा
एक पीड़ामय नाटक

पर तुम नाटक नहीं हो
मैं जानता हूं
तुम्हारा डूब जाना
नाटक नहीं है
मैं जानता हूं

और, इसीलिए हैरान हूं
कि कैसे बच जाती हो तुम
बार बार डूब कर

पीएचडी करते हुए
तुम पानी से डरती थीं
अब तुम अक्सर उसमें छपाक से उतर जाती हो
मरती हो और फिर जी उठती हो
शायद तुम वाकई एक स्त्री हो...?

Monday, March 1, 2010

फेथ..रीबिल्ट


मे
ट्रो स्टेशन के कॉफी हाउस में केन की कुर्सी में धंस कर पसरा हुआ वो कह रहा था, ‘……तुम्हें मैं अक्सर कहता हूं ना कि हार जाऊंगा टूटूंगा नहीं...तो बस ये जान लो कि मैं टूट नहीं सकता..घुटने नहीं टेकूंगा...हार नहीं मानूंगा चाहे पूरी तरह से जख्मी हो कर आखिरी सांस तक मुझे पछाड़ने में जुटी रहे जिन्दगी..मैं गिर कर जमीन पर रूड़ कर भी एक हाथ से लड़ता रहूंगा...। आखिरी वाक्य बोलते समय उसका दांया हाथ हवा में ऐसा लहलहा रहा था जैसे वो वाकई जमीन पर पसर कर तलवार धांय धांय चलाए चला जा रहा हो।

मैं बोला, ‘हारने और टूटने में क्या फर्क है...आप जब टूट गए तो आप तब हार गए..बस..यही तो...हारना टूटना ही तो है...। जब आपको लगा कि आप टूट गए तब आपने मान लिया एक तरह से कि आप हार गए...‘

बोला, ‘नहीं पागल हारने और टूटने का फर्क यही तो है कि आप नहीं कहोगे कि मैं हारा...अपनी नस नस फड़वा लोगे...नुंचवा लोगे खुद को..पर कहोगे कि लेट मी ट्राई..लेट माई लक ट्राई..लेट मी हैव फेथ ...दैट आई मे विन..दैट आई कैन विन...।‘

और कब्रिस्तान में हवा का झोंका आया...कुछ सूखे पत्ते यहां से वहां ऐसे दौड़े जैसे तेज हवा में उड़ते हुए रेशमी बाल पूरे चेहरे को अगड़म बगड़म ढक लेते हैं और अच्छा लगता है...। हारना और टूटना दो अलग अलग चीजें हैं..यानी कब्रिस्तान की मौत नहीं हुई है। वो आराम की सख्त जरूरत महसूसते जिंदों का ठिकाना है।

Sunday, February 28, 2010

कुछ ठहाके, कुछ हंसियां, कुछ मोती


सु
ख क्या होता है? सुख के चार लम्हे क्या सुख दे जाते हैं? या सुख को और निचोड़ कर सुखा जाते हैं? हंसी के चार ठहाके जब शांत होते हैं तो क्या उजाड़ हसरतें नहीं छोड़ जाते?

कैसी कड़ी मेहनत करवाती है, जबरदस्ती की हंसी। कितना बदसूरत हो उठता है चेहरा जबरन होठों को खींच कर हंसी क्रिएट करने में। जिसने जिन्दगी में एक बार हंस ली यह हंसी, कौन जानता है कि यह हंसी फिर कब कब कितनी ही बार लौट लौट कर नहीं आएगी। और उसे इसे स्वीकारना ही होगा।

हंसिए तो दिल खोल कर- डॉयलॉग अच्छा है। हंसिए तो दिल खोल कर जैसे स्वीकार किए जा चुके साहित्य को रविवार की रात को होलिका दहन के दौरान भस्म कर देना चाहिए। बचपन से जिन सूक्ति वाक्यों को सुन सुन कर पढ़ पढ़ कर घोल घोल कर हम पीते आए...सालों की ज़िन्दगी गुजार देने के बाद पता चलता है हरेक की ज़िन्दगी अपने लिए खुद एक महाकाव्य रचती है। बीतते बीतते। ये बात और है कि आप अगले जन्म (यदि पुर्नजन्म में यकीं रखते हों तो) में इस महाकाव्य का प्रयोग नहीं कर पाएंगे। जन्म से लेकर मृत्यु तक रचा गया हर यह महाकाव्य मृत्यु के बाद नष्ट हो जाता है। हर जन्म में हर योनि में हर युग में...बार बार हर बार फिर से शुरू..होती है रचना।

रक्त संबंधों की, देह संबंधों की, व्यक्तिगत संबंधों की, प्रेम संबंधों की, अनाम संबंधों की एक कभी न खत्म होने वाली पर हर बार नई रचना।

Wednesday, February 24, 2010

तुम्हारी हद?

प्यार से बैठोगे पास
और नहीं लोगे मेरा हाथ
अपनी हथेलियों के बीच

कोशिश करोगे
कि तनिक दूर ही छिटके रहो
कहीं छू न जाओ
मुझसे
और ये भी चाहोगे कि
मैं भांप लूं तुम्हारी हर कोशिश
मुझसे बचे बचे से रहने की

तुम कहोगे
तुम मेरे प्यार के काबिल नहीं
तमाम खामियों का पुलिंदा हो
मैं मनाऊंगी और गिनाऊंगी
मेरी खामियां मेरी कमियां
और कहूंगी
हम ही संतुलित हैं

तुम रहोगे बोलते
बीच बीच में आवाज को भरभरा कर
आंखों के कोने पोंछते
तुम रहोगे लगातार बोलते
और गिनाओगे
अपनी जरुरतें
अपनी मजबूरियां
अपने रिश्ते
अपने प्रेम
और अंत में अपनी गरीबी की कहानियां में कम पड़ती अशर्फियां

मैं इन अशर्फियों को पहचानती हूं
जानती हूं तुम जानते हो
कैसे इन्हें बिना किसी दस्तखत
अपने अकाउंट तक पहुंचाते हो तुम
और मैंने जाना
तुम्हारी कोई हद नहीं
और फिर फिर स्वीकारा
तुम्हारी कोई हद नहीं।

Tuesday, February 23, 2010

वज्रपात


...शा
म कैसा सा सच है। 6 बज कर 10 मिनट। पैदल घर तक की 20 मिनट की दूरी तय करते हुए सोच रही हूं कि शाम क्षणिक नहीं, शाश्वत सचाई है। यही है जो नियत समय पर आती है। दिन और रात के बीच की कड़ी। जैसे दिन के ढलने की गमगीनियत...जैसे डूबता सा दिल... जैसे ठंडा नश्तर कलेजे में उतर रहा हो...जैसे आखिरी बार बंद होती पलक...पलक के बंद होने के पहले का आधा सा सेकेंड...जैसे अथाह गहरे कुंएं में गिरने से पहले की चीख..खामोश सी चीख...दिन के ढलने की चीख..मुझे हमेशा से ही डर लगता रहा है शाम से..हमेशा से मतलब हमेशा से... 

पर जब भी शाम किसी प्रेत बाधा की तरह मुझ पर डोरे डालती होगी..मुझे हल्का हल्का याद है..मैं अक्सर उदास हो जाती थी..नहर के पास हम खेलते थे...कभी कभी...पर अब याद करती हूं वो मंजर तो वो मंजर हल्का पर उदास गहराई के साथ लौट आता है..

वो दिन भी याद हैं जब छत पर बैठ जाती थी और यूं ही उदास हो जाती थी...नहीं सूरज को देखते हुए, ढलते हुए देखते हुए, महसूसने जैसी कोई बात उन बचपन के दिनों में नहीं थी..लेकिन कुछ था..जो शाम के हल्के उजाले और हल्के अंधेरे के बीच मुझे इतना गमगीन कर देता था कि मैं मरी सी हो जाती थी..। करनाल में 3  साल की रही होऊंगी...पर शाम को कैसे चुप्पा हो जाती और सविता के साथ खेलने का मन भी नहीं करता था..और यूं ही कहीं छत पे कहीं बाग में जाके अकेले बैठ जाती थी...। उदास होने से बचने के लिए निकी के घर टीवी देखने भाई के संग हो लेती थी...तो टाइम कट जाता होगा...पर जब भी शाम किसी प्रेत बाधा की तरह मुझ पर डोरे डालती होगी..मुझे हल्का हल्का याद है..मैं अक्सर उदास हो जाती थी..नहर के पास हम खेलते थे...कभी कभी...पर अब याद करती हूं वो मंजर तो वो मंजर हल्का पर उदास गहराई के साथ लौट आता है..सिंदूरी सी शामों में न जाने क्या है जो इतना गमगीन कर देता है कि आंसू रुकते नहीं...तब भी और अब भी...

तब और अब के बीच बहुत कुछ बदल गया। बचपना बीते जमाना गुजर गया। बहुत ही खूबसूरत शामें बिताईं। बहुत ही हो हल्ले से भरी बहुत सी शामें। बहुत से आश्चर्यचकित कर देने वाले एकांत गुजारे। पर सब कुछ गुजर ही गया। गुजरता ही चला गया। कुछ भी बचा नहीं। सब कुछ बीत गया। थमा नहीं। मुझे साथ ले कर गुजरा नहीं। मुझे आगे खिसका कर खुद बीतता गया। पर...सब कुछ के बीतने के साथ भी एक विशालकाय सच बचा रहा...सच के तौर पर बची रहीं शामें। शामें बच रहीं। 

शाम अब भी श्यामल होती है कभी । और कभी सिंदूरी सी। करनाल में भी सिंदूरी। दिल्ली में भी सिंदूरी। शाहदरा में भी सिंदूरी। कौशाम्बी में भी सिंदूरी। सिक्किम में थोड़ी भीगी और सांवली सी पर अक्सर सिंदूरी। जोधपुर की पहाड़ियों के बीच की सिंदूरी शामें। रेत पर बीतती सिंदूरी शामें। सर्दियों में भी सिंदूरी। गर्मियों में भी सिंदूरी। खजुराहो के मंदिरों में उत्तेजक समां रचतीं गमगीन शामें। ट्रेन में भीड़ के बीच कटी शामें। एअरपोर्ट पर अपनों के इंतजार में बैचेनी के संग भी कटी शामें..पर सिंदूरी शामें ही। पतझड़ में...ओह..ओह..ओह..मेरे परमात्मा..पतझड़ में इनकी सिंदूरियत कैसा आसमान रचती है...जो सिर पर किसी बोझ सा आ गिरता है..और कितनी कितनी बार मारा है इस वज्रपात ने...पर फिर से आती हैं..लौटती हैं और बीतती हैं सिंदूरी शामें। 

हर रोज का सच यह है कि शाम आएगी। डराएगी। उदासी का लेप माथे पर लगा कर बस निकल लेगी..किसी पतली गली से..और ..और ...और...

घर आ गया...

Monday, February 22, 2010

एक डंडी गुलाब की


ब्रिस्तान में एक शोर होता है। इसे आप कानों पर हथेलियां रख कर नहीं झेल सकते। इसे तो नंगे कान ही झेलना पड़ता है। शोर से जूझती मैं इस ब्लॉग की शुरुआत मौत के फलसफे से कर गई...! कब्रिस्तान को पहला शब्द लिख गई..!

लेकिन फिर जन्म और मृत्यु से बड़ा सच कोई है नहीं ब्रह्मांड में। मृत्यु के बाद का दृश्य सदा ही अनसरटेन रहा है। जन्म के बाद की स्थितियां तो होती ही अनसरटेन हैं। कौन जानता है जन्म लेने वाले उस आम से बालक का जीवन कैसा होगा...और कौन जानता है आखिरी बार पलकें मूंदती आंखें मृत्यु के बाद क्या ‘जीती होगी’...।


हम सब अपने भीतर पीले साबुत पत्ते, शाख से टूटे गुलाब, कुछ ठूंठ, कुछ शोर, कुह कहकहे, कुछ जिंदा ममी, ठहरा हुआ पानी...और न जाने क्या क्या बसाए होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, इन बटोरे हुए जिंदों की संख्या भी बढ़ती जाती है।


सबके अंदर कुछ मौतें पड़ी हैं। इनकी आंखें नहीं मुंदतीं। शायद इनका वक्त नहीं आया है। जिनका वक्त नहीं आता, वो मरते नहीं। मर कर भी नहीं मरते। मौत हो जाती है। पर मरना नहीं। सूखा पत्ता क्या मृत पत्ता होता है? पिरामिडों में रखी ममियां क्या मृत हैं वाकई? ठूंठ क्या मौत की निशानी है?  पानी भरे गिलास में एक डंडी गुलाब की कई-कई दिन लहलहाती है, शाख से अलग हो कर भी मुस्कुराती-सी लगती है, क्या वो मृत होती है? ..

हम सब अपने भीतर पीले साबुत पत्ते, शाख से टूटे गुलाब, कुछ ठूंठ, कुछ शोर, कुह कहकहे, कुछ जिंदा ममी, ठहरा हुआ पानी...और न जाने क्या क्या बसाए होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, इन बटोरे हुए जिंदों की संख्या भी बढ़ती जाती है।

इन जिंदों को कब्रिस्तान जैसी मैं अपने अंदर कब से रखे हुए हूं, याद नहीं आता। पसरना चाहती हैं ये जिंदा हकीकतें। इन्हें खोल कर कुछ देर कब्रिस्तान से बाहर की हवा में रखना चाहती हूं। कब्रिस्तान का भी भला हो...और इन जिंदा बेचारी हकीकतों का भी।
यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।