Monday, February 22, 2010

एक डंडी गुलाब की


ब्रिस्तान में एक शोर होता है। इसे आप कानों पर हथेलियां रख कर नहीं झेल सकते। इसे तो नंगे कान ही झेलना पड़ता है। शोर से जूझती मैं इस ब्लॉग की शुरुआत मौत के फलसफे से कर गई...! कब्रिस्तान को पहला शब्द लिख गई..!

लेकिन फिर जन्म और मृत्यु से बड़ा सच कोई है नहीं ब्रह्मांड में। मृत्यु के बाद का दृश्य सदा ही अनसरटेन रहा है। जन्म के बाद की स्थितियां तो होती ही अनसरटेन हैं। कौन जानता है जन्म लेने वाले उस आम से बालक का जीवन कैसा होगा...और कौन जानता है आखिरी बार पलकें मूंदती आंखें मृत्यु के बाद क्या ‘जीती होगी’...।


हम सब अपने भीतर पीले साबुत पत्ते, शाख से टूटे गुलाब, कुछ ठूंठ, कुछ शोर, कुह कहकहे, कुछ जिंदा ममी, ठहरा हुआ पानी...और न जाने क्या क्या बसाए होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, इन बटोरे हुए जिंदों की संख्या भी बढ़ती जाती है।


सबके अंदर कुछ मौतें पड़ी हैं। इनकी आंखें नहीं मुंदतीं। शायद इनका वक्त नहीं आया है। जिनका वक्त नहीं आता, वो मरते नहीं। मर कर भी नहीं मरते। मौत हो जाती है। पर मरना नहीं। सूखा पत्ता क्या मृत पत्ता होता है? पिरामिडों में रखी ममियां क्या मृत हैं वाकई? ठूंठ क्या मौत की निशानी है?  पानी भरे गिलास में एक डंडी गुलाब की कई-कई दिन लहलहाती है, शाख से अलग हो कर भी मुस्कुराती-सी लगती है, क्या वो मृत होती है? ..

हम सब अपने भीतर पीले साबुत पत्ते, शाख से टूटे गुलाब, कुछ ठूंठ, कुछ शोर, कुह कहकहे, कुछ जिंदा ममी, ठहरा हुआ पानी...और न जाने क्या क्या बसाए होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, इन बटोरे हुए जिंदों की संख्या भी बढ़ती जाती है।

इन जिंदों को कब्रिस्तान जैसी मैं अपने अंदर कब से रखे हुए हूं, याद नहीं आता। पसरना चाहती हैं ये जिंदा हकीकतें। इन्हें खोल कर कुछ देर कब्रिस्तान से बाहर की हवा में रखना चाहती हूं। कब्रिस्तान का भी भला हो...और इन जिंदा बेचारी हकीकतों का भी।

No comments:

यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।