Tuesday, February 23, 2010

वज्रपात


...शा
म कैसा सा सच है। 6 बज कर 10 मिनट। पैदल घर तक की 20 मिनट की दूरी तय करते हुए सोच रही हूं कि शाम क्षणिक नहीं, शाश्वत सचाई है। यही है जो नियत समय पर आती है। दिन और रात के बीच की कड़ी। जैसे दिन के ढलने की गमगीनियत...जैसे डूबता सा दिल... जैसे ठंडा नश्तर कलेजे में उतर रहा हो...जैसे आखिरी बार बंद होती पलक...पलक के बंद होने के पहले का आधा सा सेकेंड...जैसे अथाह गहरे कुंएं में गिरने से पहले की चीख..खामोश सी चीख...दिन के ढलने की चीख..मुझे हमेशा से ही डर लगता रहा है शाम से..हमेशा से मतलब हमेशा से... 

पर जब भी शाम किसी प्रेत बाधा की तरह मुझ पर डोरे डालती होगी..मुझे हल्का हल्का याद है..मैं अक्सर उदास हो जाती थी..नहर के पास हम खेलते थे...कभी कभी...पर अब याद करती हूं वो मंजर तो वो मंजर हल्का पर उदास गहराई के साथ लौट आता है..

वो दिन भी याद हैं जब छत पर बैठ जाती थी और यूं ही उदास हो जाती थी...नहीं सूरज को देखते हुए, ढलते हुए देखते हुए, महसूसने जैसी कोई बात उन बचपन के दिनों में नहीं थी..लेकिन कुछ था..जो शाम के हल्के उजाले और हल्के अंधेरे के बीच मुझे इतना गमगीन कर देता था कि मैं मरी सी हो जाती थी..। करनाल में 3  साल की रही होऊंगी...पर शाम को कैसे चुप्पा हो जाती और सविता के साथ खेलने का मन भी नहीं करता था..और यूं ही कहीं छत पे कहीं बाग में जाके अकेले बैठ जाती थी...। उदास होने से बचने के लिए निकी के घर टीवी देखने भाई के संग हो लेती थी...तो टाइम कट जाता होगा...पर जब भी शाम किसी प्रेत बाधा की तरह मुझ पर डोरे डालती होगी..मुझे हल्का हल्का याद है..मैं अक्सर उदास हो जाती थी..नहर के पास हम खेलते थे...कभी कभी...पर अब याद करती हूं वो मंजर तो वो मंजर हल्का पर उदास गहराई के साथ लौट आता है..सिंदूरी सी शामों में न जाने क्या है जो इतना गमगीन कर देता है कि आंसू रुकते नहीं...तब भी और अब भी...

तब और अब के बीच बहुत कुछ बदल गया। बचपना बीते जमाना गुजर गया। बहुत ही खूबसूरत शामें बिताईं। बहुत ही हो हल्ले से भरी बहुत सी शामें। बहुत से आश्चर्यचकित कर देने वाले एकांत गुजारे। पर सब कुछ गुजर ही गया। गुजरता ही चला गया। कुछ भी बचा नहीं। सब कुछ बीत गया। थमा नहीं। मुझे साथ ले कर गुजरा नहीं। मुझे आगे खिसका कर खुद बीतता गया। पर...सब कुछ के बीतने के साथ भी एक विशालकाय सच बचा रहा...सच के तौर पर बची रहीं शामें। शामें बच रहीं। 

शाम अब भी श्यामल होती है कभी । और कभी सिंदूरी सी। करनाल में भी सिंदूरी। दिल्ली में भी सिंदूरी। शाहदरा में भी सिंदूरी। कौशाम्बी में भी सिंदूरी। सिक्किम में थोड़ी भीगी और सांवली सी पर अक्सर सिंदूरी। जोधपुर की पहाड़ियों के बीच की सिंदूरी शामें। रेत पर बीतती सिंदूरी शामें। सर्दियों में भी सिंदूरी। गर्मियों में भी सिंदूरी। खजुराहो के मंदिरों में उत्तेजक समां रचतीं गमगीन शामें। ट्रेन में भीड़ के बीच कटी शामें। एअरपोर्ट पर अपनों के इंतजार में बैचेनी के संग भी कटी शामें..पर सिंदूरी शामें ही। पतझड़ में...ओह..ओह..ओह..मेरे परमात्मा..पतझड़ में इनकी सिंदूरियत कैसा आसमान रचती है...जो सिर पर किसी बोझ सा आ गिरता है..और कितनी कितनी बार मारा है इस वज्रपात ने...पर फिर से आती हैं..लौटती हैं और बीतती हैं सिंदूरी शामें। 

हर रोज का सच यह है कि शाम आएगी। डराएगी। उदासी का लेप माथे पर लगा कर बस निकल लेगी..किसी पतली गली से..और ..और ...और...

घर आ गया...

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