Saturday, March 27, 2010

जब खुशियां संभलती नहीं


भी कभी कोई कोई
खुशी संभाले नहीं संभलती। कभी कभी कोई खुशी साइज में इतनी छोटी होती है कि हथेली पर पड़ी दिखाई नहीं देती।


ओस की बूंद सी, सफेद मोती सी यूं ही हथेली पर डगमगाती रहती है कि हथेली वाला हाथ डर से कांपता रहता है...कि अब गिरी कि तब गिरी...यह हाथ भी कांप गया है। डर लग रहा है कि कहीं लाखों दुआओं के बाद मिली यह खुशी हथेली पर रखी रखी सूख न जाए। कहीं ऐसा न हो कि वह फिसल कर कहीं गिर जाए। ऐसा न हो कि वह यूं ही किसी टोने के लपेटे में आकर गायब हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा भाग्य करवट ले ले...कहीं ऐसा न हो कि मेरा भाग्य करवट ले ले...

और, हाथ यह सोच सोच कर कांपता ही जा रहा है। क्या करूं कुछ समझ नहीं आता। हंसू कि न हंसू। खुश होने से क्या मेरी ही नजर लग जाएगी? आरुषि खुश होना चाहती थी और इस खुशी को स्थाई बना लेना चाहती थी। संबंधों की जटिलता ऐसी होती है कि पीछा नहीं छोड़ती। पीछा छोड़ दे, तो कितने ही संबंध खत्म हो जाएं। दरअसल, कई संबंधों की जटिलता ही है जो संबंधों को बनाए रखती है। आरुषि के लिए अंगद वही था जो उसके हाथ के लिए उसके कंधे हैं। पैर के लिए चप्पल हैं। आंख के लिए रोशनी हैं। अंधेरे के लिए उजाले। घास के लिए ओस। बाग के लिए फूल...

हाथ में गुलाब पकड़ा कर अंगद दिल्ली गया है। रिश्तेदार रहते हैं। अंगद को गए दो दिन से ऊपर हो गए। आंटी ने बताया था कि दो दिन में आ जाएगा। आज पांचवा दिन है। पांच दिन क्यों...क्यों ...क्यों...।

उसने कहा था वहां उसकी गर्लफ्रेंड रहती है जिससे अब उसका मन कट चुका है। पर..मन तो दोबारा जुड़ भी सकता है। उसने कहा था वह दिल्ली में ही सेटल होना चाहता है। वह सेटल होने के लिए ही प्लान कर रहा होगा तो...। वह वहीं रम गया तो...। वह फूल पीला था जो उसने दिया...। लाल भी नहीं था। कहीं यह ओस की बूंद


प्लासिटक का छिलका तो नहीं..जिसे मैं ओस समझने की गलती कर रही हूं...। यही सब सोच कर कर आरुषि की हालत खऱाब थी। यही सोच सोच कर उसके हाथ कांपे जा रहे थे। हथेली का आत्मविश्वास खत्म हो रहा था। ओस की बूंद सूखती सी लग रही थी। कंधे से हाथ टूटते से लग रहे थे। आंखों से रोशनी जुदा होती सी लग रही थी।

...क्या हुआ होगा। क्या होगा...। बताइए...क्या हो सकता है...

Saturday, March 13, 2010

प्रेम की निशानियां


पनों की किताबों
पर कोई भी लफ्ज ऐसा नहीं होता जिसे एडिट न किया जा सके। सपने कहानी संग्रह का नाम लगते हैं जिसके पात्रों को ठीक वैसे ही होना चाहिए, जैसे वे बुने गए होते हैं।

पर, जीवन हमें इरेज़र नहीं देता। एक पल पूर्व का अतीत ऐसे दर्ज हो जाता है मानो पत्थर पर खुदा इतिहास। न जबान से कही बात को दाएं  बाएं कर सकना संभव, न भोगे गए अहसासों को।
ले दे कर कितना कुछ इकट्ठा हो जाता है, जो न दिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। न लिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। ठीक उलट ही, दे दिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। ले लिया जाता तो बेहतर होता (शायद)।
न सिखाया होता पांव पर पांव धर कर आलथी पालथी कैसे मारी जाती है, तो वह उपासना के दौरान इतना याद न आता। छोटी गोरी पतली सी टांगे मोड़ने में कितनी दिक्कत आती थी उसे..उफ्फ..और उसकी कंडीशनिंग यह कहते हुए करना कि परमात्मा पापा के सामने आलथी पालथी में बैठते हैं नहीं तो उन्हें बुरा लगता है..कैसा संपूर्णता का अहसास होता! लगता था कि मेरी उपासना तो हो ली....
यह पहली शिक्षा थी जो कुछ जबरदस्ती सिखाई थी, 'ग' की इच्छा के खिलाफ। अभागापन तभी से शुरू होता है जब अपना ही मांस अपने आप को बाकी मांस से काट कर अलग कर लेता है। एक इरेज़र चाहिए जो प्रेम की निशानियों समेत खून के धब्बों को मिटो दे। रिश्तों को सावधानियों से बचाए रखते हुए।

Monday, March 8, 2010

धरती और आसमान बीच

हंसने गुनगुनाने
रोने गुदगुदाने
मुस्कुराने शर्म से
और जबरन मुस्कुराने,

शाम और रात के
रात और ख्वाब के
बात और चुप के
प्रेम और प्यास के,


गर्भ और पात में
स्नेह और बेस्वाद में
फिजूल और काम में
कल में और आज में,

एकांत और साथ- बीच
धोखे और विश्वास- बीच
डर और प्रताप- बीच
लय और सिद्धांत- बीच


तुम हो परिणति
तुम से ही सृष्टि
तुम ही हो कालजयी
जीवन की आकृति।

Friday, March 5, 2010

डूबिए..उतराइए

ये सुनिए। सुन कर डूब न जाएं तो कहिए।...और फिर तैर कर बाहर आने का रास्ता मिले, तो प्रतिश्रुति को भी बताएं...

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Tuesday, March 2, 2010

असल में तुम..तुम हो

क्या है ऐसा जो डुबो देता है बार बार
क्या है ऐसा जो दम घोंट देता है बार बार

डूबने और दम को घोंटने की प्रक्रिया का अंत
मर कर होता है

क्या है तुममे ऐसा जो मरता ही नहीं मर कर भी बार बार

मैंने फिर देखा तुम्हारी आंखों में
तुम मेरी कुछ भी नहीं
तुम्हारी जिंदगी मुझे एक अजीब परिघटना लगती है
अपने आस पास घटती सी
मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में
सुपरहिट होता जा रहा
एक पीड़ामय नाटक

पर तुम नाटक नहीं हो
मैं जानता हूं
तुम्हारा डूब जाना
नाटक नहीं है
मैं जानता हूं

और, इसीलिए हैरान हूं
कि कैसे बच जाती हो तुम
बार बार डूब कर

पीएचडी करते हुए
तुम पानी से डरती थीं
अब तुम अक्सर उसमें छपाक से उतर जाती हो
मरती हो और फिर जी उठती हो
शायद तुम वाकई एक स्त्री हो...?

Monday, March 1, 2010

फेथ..रीबिल्ट


मे
ट्रो स्टेशन के कॉफी हाउस में केन की कुर्सी में धंस कर पसरा हुआ वो कह रहा था, ‘……तुम्हें मैं अक्सर कहता हूं ना कि हार जाऊंगा टूटूंगा नहीं...तो बस ये जान लो कि मैं टूट नहीं सकता..घुटने नहीं टेकूंगा...हार नहीं मानूंगा चाहे पूरी तरह से जख्मी हो कर आखिरी सांस तक मुझे पछाड़ने में जुटी रहे जिन्दगी..मैं गिर कर जमीन पर रूड़ कर भी एक हाथ से लड़ता रहूंगा...। आखिरी वाक्य बोलते समय उसका दांया हाथ हवा में ऐसा लहलहा रहा था जैसे वो वाकई जमीन पर पसर कर तलवार धांय धांय चलाए चला जा रहा हो।

मैं बोला, ‘हारने और टूटने में क्या फर्क है...आप जब टूट गए तो आप तब हार गए..बस..यही तो...हारना टूटना ही तो है...। जब आपको लगा कि आप टूट गए तब आपने मान लिया एक तरह से कि आप हार गए...‘

बोला, ‘नहीं पागल हारने और टूटने का फर्क यही तो है कि आप नहीं कहोगे कि मैं हारा...अपनी नस नस फड़वा लोगे...नुंचवा लोगे खुद को..पर कहोगे कि लेट मी ट्राई..लेट माई लक ट्राई..लेट मी हैव फेथ ...दैट आई मे विन..दैट आई कैन विन...।‘

और कब्रिस्तान में हवा का झोंका आया...कुछ सूखे पत्ते यहां से वहां ऐसे दौड़े जैसे तेज हवा में उड़ते हुए रेशमी बाल पूरे चेहरे को अगड़म बगड़म ढक लेते हैं और अच्छा लगता है...। हारना और टूटना दो अलग अलग चीजें हैं..यानी कब्रिस्तान की मौत नहीं हुई है। वो आराम की सख्त जरूरत महसूसते जिंदों का ठिकाना है।
यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।