Sunday, February 28, 2010

कुछ ठहाके, कुछ हंसियां, कुछ मोती


सु
ख क्या होता है? सुख के चार लम्हे क्या सुख दे जाते हैं? या सुख को और निचोड़ कर सुखा जाते हैं? हंसी के चार ठहाके जब शांत होते हैं तो क्या उजाड़ हसरतें नहीं छोड़ जाते?

कैसी कड़ी मेहनत करवाती है, जबरदस्ती की हंसी। कितना बदसूरत हो उठता है चेहरा जबरन होठों को खींच कर हंसी क्रिएट करने में। जिसने जिन्दगी में एक बार हंस ली यह हंसी, कौन जानता है कि यह हंसी फिर कब कब कितनी ही बार लौट लौट कर नहीं आएगी। और उसे इसे स्वीकारना ही होगा।

हंसिए तो दिल खोल कर- डॉयलॉग अच्छा है। हंसिए तो दिल खोल कर जैसे स्वीकार किए जा चुके साहित्य को रविवार की रात को होलिका दहन के दौरान भस्म कर देना चाहिए। बचपन से जिन सूक्ति वाक्यों को सुन सुन कर पढ़ पढ़ कर घोल घोल कर हम पीते आए...सालों की ज़िन्दगी गुजार देने के बाद पता चलता है हरेक की ज़िन्दगी अपने लिए खुद एक महाकाव्य रचती है। बीतते बीतते। ये बात और है कि आप अगले जन्म (यदि पुर्नजन्म में यकीं रखते हों तो) में इस महाकाव्य का प्रयोग नहीं कर पाएंगे। जन्म से लेकर मृत्यु तक रचा गया हर यह महाकाव्य मृत्यु के बाद नष्ट हो जाता है। हर जन्म में हर योनि में हर युग में...बार बार हर बार फिर से शुरू..होती है रचना।

रक्त संबंधों की, देह संबंधों की, व्यक्तिगत संबंधों की, प्रेम संबंधों की, अनाम संबंधों की एक कभी न खत्म होने वाली पर हर बार नई रचना।

Wednesday, February 24, 2010

तुम्हारी हद?

प्यार से बैठोगे पास
और नहीं लोगे मेरा हाथ
अपनी हथेलियों के बीच

कोशिश करोगे
कि तनिक दूर ही छिटके रहो
कहीं छू न जाओ
मुझसे
और ये भी चाहोगे कि
मैं भांप लूं तुम्हारी हर कोशिश
मुझसे बचे बचे से रहने की

तुम कहोगे
तुम मेरे प्यार के काबिल नहीं
तमाम खामियों का पुलिंदा हो
मैं मनाऊंगी और गिनाऊंगी
मेरी खामियां मेरी कमियां
और कहूंगी
हम ही संतुलित हैं

तुम रहोगे बोलते
बीच बीच में आवाज को भरभरा कर
आंखों के कोने पोंछते
तुम रहोगे लगातार बोलते
और गिनाओगे
अपनी जरुरतें
अपनी मजबूरियां
अपने रिश्ते
अपने प्रेम
और अंत में अपनी गरीबी की कहानियां में कम पड़ती अशर्फियां

मैं इन अशर्फियों को पहचानती हूं
जानती हूं तुम जानते हो
कैसे इन्हें बिना किसी दस्तखत
अपने अकाउंट तक पहुंचाते हो तुम
और मैंने जाना
तुम्हारी कोई हद नहीं
और फिर फिर स्वीकारा
तुम्हारी कोई हद नहीं।

Tuesday, February 23, 2010

वज्रपात


...शा
म कैसा सा सच है। 6 बज कर 10 मिनट। पैदल घर तक की 20 मिनट की दूरी तय करते हुए सोच रही हूं कि शाम क्षणिक नहीं, शाश्वत सचाई है। यही है जो नियत समय पर आती है। दिन और रात के बीच की कड़ी। जैसे दिन के ढलने की गमगीनियत...जैसे डूबता सा दिल... जैसे ठंडा नश्तर कलेजे में उतर रहा हो...जैसे आखिरी बार बंद होती पलक...पलक के बंद होने के पहले का आधा सा सेकेंड...जैसे अथाह गहरे कुंएं में गिरने से पहले की चीख..खामोश सी चीख...दिन के ढलने की चीख..मुझे हमेशा से ही डर लगता रहा है शाम से..हमेशा से मतलब हमेशा से... 

पर जब भी शाम किसी प्रेत बाधा की तरह मुझ पर डोरे डालती होगी..मुझे हल्का हल्का याद है..मैं अक्सर उदास हो जाती थी..नहर के पास हम खेलते थे...कभी कभी...पर अब याद करती हूं वो मंजर तो वो मंजर हल्का पर उदास गहराई के साथ लौट आता है..

वो दिन भी याद हैं जब छत पर बैठ जाती थी और यूं ही उदास हो जाती थी...नहीं सूरज को देखते हुए, ढलते हुए देखते हुए, महसूसने जैसी कोई बात उन बचपन के दिनों में नहीं थी..लेकिन कुछ था..जो शाम के हल्के उजाले और हल्के अंधेरे के बीच मुझे इतना गमगीन कर देता था कि मैं मरी सी हो जाती थी..। करनाल में 3  साल की रही होऊंगी...पर शाम को कैसे चुप्पा हो जाती और सविता के साथ खेलने का मन भी नहीं करता था..और यूं ही कहीं छत पे कहीं बाग में जाके अकेले बैठ जाती थी...। उदास होने से बचने के लिए निकी के घर टीवी देखने भाई के संग हो लेती थी...तो टाइम कट जाता होगा...पर जब भी शाम किसी प्रेत बाधा की तरह मुझ पर डोरे डालती होगी..मुझे हल्का हल्का याद है..मैं अक्सर उदास हो जाती थी..नहर के पास हम खेलते थे...कभी कभी...पर अब याद करती हूं वो मंजर तो वो मंजर हल्का पर उदास गहराई के साथ लौट आता है..सिंदूरी सी शामों में न जाने क्या है जो इतना गमगीन कर देता है कि आंसू रुकते नहीं...तब भी और अब भी...

तब और अब के बीच बहुत कुछ बदल गया। बचपना बीते जमाना गुजर गया। बहुत ही खूबसूरत शामें बिताईं। बहुत ही हो हल्ले से भरी बहुत सी शामें। बहुत से आश्चर्यचकित कर देने वाले एकांत गुजारे। पर सब कुछ गुजर ही गया। गुजरता ही चला गया। कुछ भी बचा नहीं। सब कुछ बीत गया। थमा नहीं। मुझे साथ ले कर गुजरा नहीं। मुझे आगे खिसका कर खुद बीतता गया। पर...सब कुछ के बीतने के साथ भी एक विशालकाय सच बचा रहा...सच के तौर पर बची रहीं शामें। शामें बच रहीं। 

शाम अब भी श्यामल होती है कभी । और कभी सिंदूरी सी। करनाल में भी सिंदूरी। दिल्ली में भी सिंदूरी। शाहदरा में भी सिंदूरी। कौशाम्बी में भी सिंदूरी। सिक्किम में थोड़ी भीगी और सांवली सी पर अक्सर सिंदूरी। जोधपुर की पहाड़ियों के बीच की सिंदूरी शामें। रेत पर बीतती सिंदूरी शामें। सर्दियों में भी सिंदूरी। गर्मियों में भी सिंदूरी। खजुराहो के मंदिरों में उत्तेजक समां रचतीं गमगीन शामें। ट्रेन में भीड़ के बीच कटी शामें। एअरपोर्ट पर अपनों के इंतजार में बैचेनी के संग भी कटी शामें..पर सिंदूरी शामें ही। पतझड़ में...ओह..ओह..ओह..मेरे परमात्मा..पतझड़ में इनकी सिंदूरियत कैसा आसमान रचती है...जो सिर पर किसी बोझ सा आ गिरता है..और कितनी कितनी बार मारा है इस वज्रपात ने...पर फिर से आती हैं..लौटती हैं और बीतती हैं सिंदूरी शामें। 

हर रोज का सच यह है कि शाम आएगी। डराएगी। उदासी का लेप माथे पर लगा कर बस निकल लेगी..किसी पतली गली से..और ..और ...और...

घर आ गया...

Monday, February 22, 2010

एक डंडी गुलाब की


ब्रिस्तान में एक शोर होता है। इसे आप कानों पर हथेलियां रख कर नहीं झेल सकते। इसे तो नंगे कान ही झेलना पड़ता है। शोर से जूझती मैं इस ब्लॉग की शुरुआत मौत के फलसफे से कर गई...! कब्रिस्तान को पहला शब्द लिख गई..!

लेकिन फिर जन्म और मृत्यु से बड़ा सच कोई है नहीं ब्रह्मांड में। मृत्यु के बाद का दृश्य सदा ही अनसरटेन रहा है। जन्म के बाद की स्थितियां तो होती ही अनसरटेन हैं। कौन जानता है जन्म लेने वाले उस आम से बालक का जीवन कैसा होगा...और कौन जानता है आखिरी बार पलकें मूंदती आंखें मृत्यु के बाद क्या ‘जीती होगी’...।


हम सब अपने भीतर पीले साबुत पत्ते, शाख से टूटे गुलाब, कुछ ठूंठ, कुछ शोर, कुह कहकहे, कुछ जिंदा ममी, ठहरा हुआ पानी...और न जाने क्या क्या बसाए होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, इन बटोरे हुए जिंदों की संख्या भी बढ़ती जाती है।


सबके अंदर कुछ मौतें पड़ी हैं। इनकी आंखें नहीं मुंदतीं। शायद इनका वक्त नहीं आया है। जिनका वक्त नहीं आता, वो मरते नहीं। मर कर भी नहीं मरते। मौत हो जाती है। पर मरना नहीं। सूखा पत्ता क्या मृत पत्ता होता है? पिरामिडों में रखी ममियां क्या मृत हैं वाकई? ठूंठ क्या मौत की निशानी है?  पानी भरे गिलास में एक डंडी गुलाब की कई-कई दिन लहलहाती है, शाख से अलग हो कर भी मुस्कुराती-सी लगती है, क्या वो मृत होती है? ..

हम सब अपने भीतर पीले साबुत पत्ते, शाख से टूटे गुलाब, कुछ ठूंठ, कुछ शोर, कुह कहकहे, कुछ जिंदा ममी, ठहरा हुआ पानी...और न जाने क्या क्या बसाए होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, इन बटोरे हुए जिंदों की संख्या भी बढ़ती जाती है।

इन जिंदों को कब्रिस्तान जैसी मैं अपने अंदर कब से रखे हुए हूं, याद नहीं आता। पसरना चाहती हैं ये जिंदा हकीकतें। इन्हें खोल कर कुछ देर कब्रिस्तान से बाहर की हवा में रखना चाहती हूं। कब्रिस्तान का भी भला हो...और इन जिंदा बेचारी हकीकतों का भी।
यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।