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भी कभी कोई कोई खुशी संभाले नहीं संभलती। कभी कभी कोई खुशी साइज में इतनी छोटी होती है कि हथेली पर पड़ी दिखाई नहीं देती।
ओस की बूंद सी, सफेद मोती सी यूं ही हथेली पर डगमगाती रहती है कि हथेली वाला हाथ डर से कांपता रहता है...कि अब गिरी कि तब गिरी...यह हाथ भी कांप गया है। डर लग रहा है कि कहीं लाखों दुआओं के बाद मिली यह खुशी हथेली पर रखी रखी सूख न जाए। कहीं ऐसा न हो कि वह फिसल कर कहीं गिर जाए। ऐसा न हो कि वह यूं ही किसी टोने के लपेटे में आकर गायब हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा भाग्य करवट ले ले...कहीं ऐसा न हो कि मेरा भाग्य करवट ले ले...
और, हाथ यह सोच सोच कर कांपता ही जा रहा है। क्या करूं कुछ समझ नहीं आता। हंसू कि न हंसू। खुश होने से क्या मेरी ही नजर लग जाएगी? आरुषि खुश होना चाहती थी और इस खुशी को स्थाई बना लेना चाहती थी। संबंधों की जटिलता ऐसी होती है कि पीछा नहीं छोड़ती। पीछा छोड़ दे, तो कितने ही संबंध खत्म हो जाएं। दरअसल, कई संबंधों की जटिलता ही है जो संबंधों को बनाए रखती है। आरुषि के लिए अंगद वही था जो उसके हाथ के लिए उसके कंधे हैं। पैर के लिए चप्पल हैं। आंख के लिए रोशनी हैं। अंधेरे के लिए उजाले। घास के लिए ओस। बाग के लिए फूल...
हाथ में गुलाब पकड़ा कर अंगद दिल्ली गया है। रिश्तेदार रहते हैं। अंगद को गए दो दिन से ऊपर हो गए। आंटी ने बताया था कि दो दिन में आ जाएगा। आज पांचवा दिन है। पांच दिन क्यों...क्यों ...क्यों...।
उसने कहा था वहां उसकी गर्लफ्रेंड रहती है जिससे अब उसका मन कट चुका है। पर..मन तो दोबारा जुड़ भी सकता है। उसने कहा था वह दिल्ली में ही सेटल होना चाहता है। वह सेटल होने के लिए ही प्लान कर रहा होगा तो...। वह वहीं रम गया तो...। वह फूल पीला था जो उसने दिया...। लाल भी नहीं था। कहीं यह ओस की बूंद
प्लासिटक का छिलका तो नहीं..जिसे मैं ओस समझने की गलती कर रही हूं...। यही सब सोच कर कर आरुषि की हालत खऱाब थी। यही सोच सोच कर उसके हाथ कांपे जा रहे थे। हथेली का आत्मविश्वास खत्म हो रहा था। ओस की बूंद सूखती सी लग रही थी। कंधे से हाथ टूटते से लग रहे थे। आंखों से रोशनी जुदा होती सी लग रही थी।
...क्या हुआ होगा। क्या होगा...। बताइए...क्या हो सकता है...
1 comment:
अंगद के जाने से क्या घबराना....सुग्रीव, बालि और हजारों वानर मौजूद हैं किसी को भी हाथ के लिये कंधा,पैर के लिये चप्पल, घास के लिये ओस बनाया जा सकता है।
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