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पनों की किताबों पर कोई भी लफ्ज ऐसा नहीं होता जिसे एडिट न किया जा सके। सपने कहानी संग्रह का नाम लगते हैं जिसके पात्रों को ठीक वैसे ही होना चाहिए, जैसे वे बुने गए होते हैं।
पर, जीवन हमें इरेज़र नहीं देता। एक पल पूर्व का अतीत ऐसे दर्ज हो जाता है मानो पत्थर पर खुदा इतिहास। न जबान से कही बात को दाएं बाएं कर सकना संभव, न भोगे गए अहसासों को।
ले दे कर कितना कुछ इकट्ठा हो जाता है, जो न दिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। न लिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। ठीक उलट ही, दे दिया जाता तो बेहतर होता (शायद)। ले लिया जाता तो बेहतर होता (शायद)।
न सिखाया होता पांव पर पांव धर कर आलथी पालथी कैसे मारी जाती है, तो वह उपासना के दौरान इतना याद न आता। छोटी गोरी पतली सी टांगे मोड़ने में कितनी दिक्कत आती थी उसे..उफ्फ..और उसकी कंडीशनिंग यह कहते हुए करना कि परमात्मा पापा के सामने आलथी पालथी में बैठते हैं नहीं तो उन्हें बुरा लगता है..कैसा संपूर्णता का अहसास होता! लगता था कि मेरी उपासना तो हो ली....
यह पहली शिक्षा थी जो कुछ जबरदस्ती सिखाई थी, 'ग' की इच्छा के खिलाफ। अभागापन तभी से शुरू होता है जब अपना ही मांस अपने आप को बाकी मांस से काट कर अलग कर लेता है। एक इरेज़र चाहिए जो प्रेम की निशानियों समेत खून के धब्बों को मिटो दे। रिश्तों को सावधानियों से बचाए रखते हुए।
2 comments:
कोशिश कर रहे हैं समझने की..
"जीवन हमें इरेज़र नहीं देता। एक पल पूर्व का अतीत ऐसे दर्ज हो जाता है मानो पत्थर पर खुदा इतिहास।"
बिलकुल सच्ची बात !
प्रविष्टि का आभार ।
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