Wednesday, February 24, 2010

तुम्हारी हद?

प्यार से बैठोगे पास
और नहीं लोगे मेरा हाथ
अपनी हथेलियों के बीच

कोशिश करोगे
कि तनिक दूर ही छिटके रहो
कहीं छू न जाओ
मुझसे
और ये भी चाहोगे कि
मैं भांप लूं तुम्हारी हर कोशिश
मुझसे बचे बचे से रहने की

तुम कहोगे
तुम मेरे प्यार के काबिल नहीं
तमाम खामियों का पुलिंदा हो
मैं मनाऊंगी और गिनाऊंगी
मेरी खामियां मेरी कमियां
और कहूंगी
हम ही संतुलित हैं

तुम रहोगे बोलते
बीच बीच में आवाज को भरभरा कर
आंखों के कोने पोंछते
तुम रहोगे लगातार बोलते
और गिनाओगे
अपनी जरुरतें
अपनी मजबूरियां
अपने रिश्ते
अपने प्रेम
और अंत में अपनी गरीबी की कहानियां में कम पड़ती अशर्फियां

मैं इन अशर्फियों को पहचानती हूं
जानती हूं तुम जानते हो
कैसे इन्हें बिना किसी दस्तखत
अपने अकाउंट तक पहुंचाते हो तुम
और मैंने जाना
तुम्हारी कोई हद नहीं
और फिर फिर स्वीकारा
तुम्हारी कोई हद नहीं।

2 comments:

Anonymous said...

और मैंने जाना
तुम्हारी कोई हद नहीं
और फिर फिर स्वीकारा
तुम्हारी कोई हद नहीं।
सच्ची और अच्छी रचना

M VERMA said...

बेहद की कोई हद नही होती
बेहतरीन रचना

यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।